रोजगार गारंटी के चार गोदी खने के बाद अपन खेत के चार डंगनी खंती खन के भरे मंझनिया जरत-भुंजावत सुखिया बाई ह जब अपन घर पहुंचिस,तव अभी तलक ओकर नवा बहुरिया ह जेवन नइ रांधे रहिस! परछी म एक पीढ़वा खींच के मुड़की म ओढक के सुखिया बाई (सास) बईिठस, तब ओकर मुड़ी ले पछीना ह तर-तर, तर-तर झरना सहीं बोहाए लगिस! तर-बतर बोहावत पछीना ला अपन अंचरा के छोर म पोंछते-पोंछत सुखिया कहिस-“लोटा भर पानी लान तो बहुरिया,टोंटा निचट सुखा गए हवय”! तोर देवर चुक्कू अउ भर्तार मुक्कू बर एक कटोरा पानी म शक्कर नईते गुड़ घोर के ले आन, थोकुन ताकत मिल जाही,बूता-काम अउ नवतपा के जोर म निचट लसत पर गए हवंय! अपन सास के गोठ ला सुन के अनसुना करते हुए नवा बहुरिया “कामिनी” ह अभी तलक अपन मोबाईल के वाट्सएप / फेसबुक म बिधुन रहिस, तब ओकर गोसईंया मुक्कू ह जबान खोलिस, मुक्कू-कस जी,हमन अतेक भरे मंझनिया आठ डंगनी गोदी खन के भूखहा-पियसहा घर पहुंचे हन, दाई ह पानी मांगत हवय, तभो ले तैं हा एक लोटा पानी नइ लानत हस,ऊपर से अपन मोबाईल म बिधुन हो के वाट्सएप / फेसबुक चलावत हस! मोला तो खूब अचरित लागत हवय-तोर चाल-गुन ह ! कामिनी-लानत तो हौं, थोकुन धीरज नइ धरे सकौ? जहां कुछु बात मुंह से निकलीस, तिहां तुरुत हुकूम के हाजिर होना चाही, हूं…कहत पानी लानिस।
सुखिया कहिस-चुक्कू-मुक्कू बर शरबत बना दे बहुरिया, मैं तो सुगर बीमारी वाला अंव,”शरबत पीए के मन तो होथे, फेर जहर ला जानबूझ के कईसे पीयवं ? कामिनी-हूं ऊं कहि के रसोई खोली गईस, कुछ टेम बाद शरबत ले के आईस, सुखिया-कस बहुरिया, अभी ले जेवन नइ रांधे हस? कामिनी-नहीं, मोर सहेली के फोन आ गईस, तऊने म बिलहोरा गएंव, जाथौं आगी सुलगाहूं सुखिया-ओ हो! तैं तो हमर तन-मन म आगी बार डारे ओ! अरे तोर सहेली के फोन आईसे, तब तैं गोठियात-गोठियात रांध-पसा डारे रहिते? अकरस जोंत के गुस्सेलहा तोर ससुर आवत होही? खूब भुखाए-पियासे होही, जेवन नइ रांधे हस, जान के ओकर गुस्सा बरेड़ी म चढ़ जाही! कामिनी -हमर ससुर जी के “जम्मो गुस्सा ला पानी-पानी कर देहूं, आज-कल के पढ़े-लिखे लड़की मन सास-ससुर ला न तो घेपंय न ही डेरावैं।
सुखिया-हहो बहुरिया,”पतराखन ला पतोहू कहिथैं”, जऊन बहू अपन सास-ससुर के भरिहाव नइ करैं, अदब नइ करैं, मान-सम्मान अउ मर्यादा के खिलाफ कटकटौहन जवाब देथैं! तऊन ला भला का कहिबो? कामिनी-हव मोला कुच्छू झन बोले करौ, मैं पढ़े लिखे लड़की अंव, मुक्कू-नगरिहा बईला मन बर पैरा-भुंसा डारे हस के नहीं? कोटना म पानी भरे हस के नहीं? कामिनी-नही-नहीं, मुक्कू-तव काय करत रहे? कामिनी-मोबाईल चलावत रहेंव,अउ का करतेंव? मुक्कू- देख कामिनी, तोर एही आदत ठीक नइ हे, तैं जादा मोबाईल चलाबे, तब तोर मोबाईल ल फेंक देहूं, खूब डांट के कहिस, कामिनी ह पेट भर डर्रा गे! तहां रांधे-गढ़े बर जुट गे, मुक्कू के ददा मुछेल राम ह ठीक बेरा ठढ़ियात नांगर बोहि के आईस,तव ओकर आंखी लाल-लाल दिखत रहिस, पेट भले पचके रहिस, तभो ले बघवा सहीं रूआब! तलवार कस टेंए-टेंए मेछा! बड़े-बड़े चुंदी अउ दाढ़ी! गज भर के छाती, पचहत्था जवान तो आय, नांगर ला तुलसी चौरा तिर बीच अंगना म मढ़ा के बईला मन ला ऊंकर कोटना तिर बांधे बर गईस, तब नंगरिहा बईला बर न तो पैरा डारे रहिस,न ही कोटना म पानी भरे रहिस! तब मुछेलराम ह बघवा सहीं गरजते हुए कहिस-ए काय लापरवाही आय? न तो बईला बर एक मुठा पैरा डारे हवय, न ही कोटना म एको हऊला पानी भरे हवय! अईसे म भला कैसे चलही? आजकल के बहू बड़ा विचित्र हो्वत जाथैं!
तब सुखिया ह कहिस-लेवा भईगे टारव, ए दे तुंहर पटकू (गमछा) हवय, चला सुक्खा पहिर लेवा, तब तक बहुरिया ह जेवन रांध डारही अउ बईला मन बर पैरा-भूंसा मैंहा डार देहूं, तब मुछेलराम के गुस्सा थोकुन ठंडा होईस। जेवन खाए के बाद सब हालचाल सुखिया ह अपन गोसईंया ला बताईस, तब मुछेल राम ह अपन बहू ला बुला के प्रेम से समझाईस-सुन बेटी, मईके-ससुरे के रहन-सहन म जमीन-आसमान के अंतर रहिथे, तऊन सब्बो रीति-रिवाज, संस्कृति, ला सीख के ससुरार के रहन-सहन के अनुसार गुजर-बसर करना पड़थे, सुनत हस के नहीं? कामिनी-सुनत हौं बाबू जी, मुछेल राम-हमन रोज कमाथन,रोज खाथन,गरीब मनखे हवन, तव हमर घर के रीति-रिवाज के अनुसार तोला रहना पड़ही, मोबाईल ला जरूरत के अनुसार ही चलाना चाही, काम के बेरा कामबूता करना चाही,समझे के नहीं? कामिनी-जी बाबूजी, समझत हौं, सुखिया-तोला जादा का कहिबो बहुरिया, तोर बिहाव के समय जतेक नवा बहुरिया आए हवंय,”तऊन जम्मो बहुरिया अपन-अपन घर के धारन (छांधी के बीचों-बीच लम्बा-मोटा लकड़ी,जऊन रीढ़ के हड्डी जैसे होथे,जेमा जम्मो कांड़ गुंथाय रहिथैं) ला बोहि डारे हवंय, घर सम्हालत हवंय,अब तहूं हमर घर के धारन ला उठा, कामिनी-काला कहिथैं धारन? तब सुखिया ह बताईस-ए दे ला कहिथैं धारन, कामिनी-अच्छा ठीक है,कल से मैं भी ये “धारन” ला उठाहूं, तब सुखिया अब्बड़ेच खुश होगे। बिहान दिन सुखिया -मुछेल राम अउ ओकर दुनो बेटा चुक्कू-मुक्कू रोजगार गारंटी योजना के गड्ढा खन के मझनिया अपन कुरिया म आईन, सुखिया पूछिस-आज जेवन रांधे हस बहुरिया? तब कामिनी कहिस-तुहीं मन तो कहे हौ, अपन घर के धारन ला बोहे बर, तौ मैं दिन भर ये धारन ला बोहे हवंव।
जम्मो जा के देखीन, तव कामिनी ह पटांव ऊपर चढ़ के अपन मुड़ी म गुढ़री मढ़ा के “धारन” ला बोहे रहिस! तऊन ला देख के जम्मो हांसे लागिन-हा हा हा हा …सुखिया कहिस-बेटी कामिनी, तैं पढ़े हस जरूर फेर कढ़े नइ हस! अरे! धारन बोहे बर कहे हौं, तव छांधी के धारन ला बोहे बर नइ कहे हौं, बल्कि हमर घर के साफ-सफाई, रंधाई-खवाई, लीपाई-पोताई, गाय-बईला, बछरू के पैरा-भूंसा के इंतजाम अउ घर के जम्मो बूता-काम ला निर्धारित समय म पूरा करे के बात कहे हौं! ठहाका लगा के जम्मो खूब हांसे लगिन-हा हा हा हा…तब कामिनी ह सब कुछ समझ गईस अउ कहिस-ठीक हे मम्मी जी, कालि ले महूं ये घर के “धारन” ला बोहिहौं, सब भार-भरोस सम्हालिहौं…।
लेखक
गया प्रसाद साहू “रतनपुरिहा”
मुकाम व पोस्ट-करगी रोड कोटा जिला बिलासपुर (छ.ग.)