भारतीय साहित्य जगत में संवेदनशील लेखक,सचेत नागरिक, कुशल वक्ता, सुधि विद्धवान जिन्होंने ग्रामीण लोगों के जनमानस में डूबकर उनके दुख-सुख,परिस्थितियों, रहन-सहन,खान-पान,पहनावा,ठेठ बोली को अपनी लेखन में महत्वपूर्ण स्थान दिया। जिन्हें लोग कलम का सिपाही, कलम का मजदूर,रूस के गोर्की,चीन के लुशुन, मुंशीजी आदि नामों से जानते हैं। जिन्होंने आगामी एक पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर साहित्य की आदर्शोन्मुख यथार्थवादी परंपरा की नींव डाली। उनके और उनके साहित्य बिना हिंदी साहित्य जगत नितांत अधूरा है।
प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तरप्रदेश के वाराणसी के निकट लमही नामक गाँव मे हुआ था। पढ़ने का शौक़ उन्हें बचपन से ही था। इसी कारण 13 वर्ष की उम्र में तिलिस्म-ए-होशरूबा पढ़ लिया था। किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही माता पिता का साया सर से उठ गया। फलतः प्रारंभिक जीवन संघर्षमय ही रहा। पहले शिक्षक,फिर बाद में शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर के पद पर कार्य भी किया। विवाह भी जल्दी हो गए थे,परंतु पहले विवाह असफल रहा। आर्य समाज से प्रभावित होकर विधवा विवाह का समर्थन करते हुए बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया। जिनसे उन्हें तीन संतान सुख प्राप्त हुए-श्रीपत राय, अमृतराय, कमलादेवी।
लेखन की शुरुआत 1901 में ही अपने मामा पर व्यंग्य लिख कर किया। 1910 में सोजे वतन के लिये हमीरपुर कलेक्टर ने प्रतियां जब्त कर नष्ट कर ये हिदायत दे दी कि आगे से जनता को भड़काने वाला कोई भी लेख लिखा तो जेल में डाल दूँगा। ब्रिटिश शासन में साहित्यिक रूप से विरोध को भी दबाया गया,वस्तुतः दमन की नीति में प्रेमचंद भी पिस गए थे। लेकिन लेखन की कला को ब्रिटिश सरकार दबा न सकी,और वह अपने मित्र जमाना पत्रिका के संपादक मुंशी दयानारायण निगम की सलाह पर प्रेमचंद के नाम से लिखना जारी रहा। प्रेमचंद जी ने आरंभिक शिक्षा उर्दू फ़ारसी की प्राप्त की थी अस्तु पहली लेखन उर्दू में ही शुरू किया। बाद में हिन्दी भाषा में लेखन कार्य निर्बाध रूप से अंतिम समय तक करते रहे।
आपके साहित्य निधि में कुबेर के भंडार की भांति अनेक प्रकार के रत्न रूपी कृतियां समाहित है। 300 से ज्यादा कहानी,डेढ़ दर्जन उपन्यास,नाटक,निबंध, अनुवाद, बाल साहित्य,संपादन कार्य- मर्यादा, माधुरी, हंस, जागरण पत्रिकाओं का संपादन किया।
उर्दू से हिन्दी में 7 उपन्यास रूपांतरण भी किये हैं। आपके उपन्यास गोदान एक कालजयी उपन्यास के रूप में विश्व में स्थापित है। जिन पर भारतीय किसान जीवन की महा त्रासदी व ऋण की समस्याओं का सजीव चित्रण हुआ है। इस समय भी गरीब, दबे-कुचले लोगों का शोषण करने वाले पूंजीपतियों को भी एक बार गोदान अवश्य पढ़ लेना चाहिए, जिससे उनके आवश्यकताएं तथा समस्याओं का स्पष्ट रेखाचित्र मानस पटल म छाई रहे तथा कोई भी होरी की सी दयनीय स्थिति को न जीने पाये। गोदान के पात्र होरी धनिया,गोबर, झुनिया, रॉय साहब,मेहता, खन्ना, मातादीन, दातादीन को कोई भी भुला नही सकता। हरकु, माधव,घीसू,जालपा,रमानाथ,अलगू चौधरी, जुम्मन शेख, समझू साहू,ईदगाह का हामिद, हीरा मोती बैल, बूढ़ी काकी, ठाकुर का कुआँ जैसे आपके पात्र व कहानी को बिसरा पाना इस युग में असंभव है।
अन्य उपन्यासो में प्रेमा,सेवासदन, वरदान, प्रेमाश्रम,रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन,आदि उल्लेखनीय है, जिनकी प्रमुख छाप किसान, जमीदार, दलित उत्थान, शोषण नीति,औपनिवेशिक शासन, विधवा विवाह, जैसे सामाजिक बुराईयों पर व्यंग्य के साथ चित्रण किया है। मुंशी जी के साहित्य को पढ़कर लगता है कि मेरे ही आसपास के समाज,देश की घटनाओं का सजीव चित्रण है।
आपके जितने भी साहित्यिक कृतियां है उन पर आपकी ही छाया यदा कदा दिख पड़ती है। यही लेखन की प्रमुख तत्वों में भी होना चाहिए कि लेखक की छवि उनकी कृतियों में छलके। इन पर आपने खूब रंग जमाया। भोगे हुए यथार्थ को अपनी साहित्य में उकेर कर आप साहित्य जगत में दैदीप्यमान नक्षत्रों की तरह चमक रहे हैं।
मुंशी जी ने कहा था-साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नही है बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। साहित्य को ताकत से दबाने का कुप्रभाव समाजो को सहना पड़ता है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई।
आपकी कुछ कृतियों पर फ़िल्म भी बनी। मुम्बई में भी कुछ समय गुजारे पर वहाँ की हवा पानी रास नहीं आई और वापस बनारस आ गए। सत्यजीत राय ने शतरंज के खिलाड़ी, सद्गति तथा सेवासदन पर सुब्बालक्ष्मी अभिनीत,मृणालसेन कफ़न पर,फिर गोदान, गबन,और निर्मला पर टीवी धारावाहिक बहुत ही लोकप्रिय हुये।
प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिंदी में आये और हिंदी के महान लेखक बने। आपने युगान्तकारी रचना कर अपनी रचनाओं में आम आदमी को नायक बनाकर उनकी समस्याओं पर जम कर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। गरीबी और दैन्यता की कहानी गढ़ी और उन्हें नायक बनाया जिन्हें समाज अछूत और घृणित समझता था।
कलम के ऐसे सजग सिपाही,उपन्यास सम्राट,साहित्य जगत का सूरज 8 अक्टूबर 1936 को अस्त हो गया। मुन्शीजी का साहित्य संसार युगों तक अमर रहकर गरीब,दीन हीन, शोषित नागरिक जीवन,सामाजिक जीवन की कुरीतियों की समस्याओं को पूरे दमखम से उठाकर शोषकों के विरूद्ध ललकार की भावना जागृत करता रहेगा। उनके साहित्य को पढ़कर, उतारकर एक सभ्य समाज की स्थापना करने मशाल की तरह पथ-प्रदर्शक हो सकने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

हेमलाल सहारे
मोहगांव(छुरिया) राजनांदगांव