छत्तीसगढ़ी नाचा पार्टी के जनक
दाऊ दुलार सिंह मंदराजी
विगत 29 वर्षों से प्रतिवर्ष आयोजन 1 अप्रैल को
दाऊ दुलार सिंह मंदराजी का जन्म 1 अप्रैल 1910 को राजनांदगांव से 7 किलोमीटर दूर रवेली ग्राम के सम्पन्न जमींदार परिवार में हुआ था। आपने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की थी। गांव में कुछ लोक कलाकार थे उन्हीं के निकट रहतेे चिकारा और तबला सीखेे। गांव के समस्त धार्मिक व सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। जहां कहीं भी ऐसे कार्यक्रम होते, तो वे अपने पिताजी के विरोध के बावजूद भी रात्रि में होने वाले नाचा आदि के कार्यक्रमों में अत्यधिक रूचि लेते थे। आपको बचपन से गीत-नृत्य के प्रति खास लगाव था। बचपन में बडे़ पेट वाला बालक दुलारसिंह गांव में अपने घर के आंगन में खेल रहा था। इसी आंगन में तुलसी चौंरा में मद्रासी की एक मूर्ति रखी थी। इस भाव विभोर के क्षण को आत्मसात करता मंदराजी के नानाजी ने दुलार सिंह को मद्रासी शब्द से संबोधित करने लगा, जो लगातार यह नाम प्रचलन में आने के बाद विकृत स्वरूप में मंदराजी के रूप में जगजाहिर हो गया। आपकी चार-पांच गांवों में मालगुजारी रही।
पारिवारिक जीवन
इनके पिता को दुलारसिंह की रूचि बिल्कुल पसंद नहीं थी, इसलिए हमेशा अपने पिताजी की प्रताड़ना का सामना भी करना पड़ता था। इनसे दूर करने के लिए तथा पारिवारिक सूत्र में बांधने के लिए चूंकि इनके पिताजी को इनकी संगीतीय रूचि पसंद नहीं थी। इनके पिता ने रूचियों में परिर्वतन होने की आशा से मात्र 24 वर्ष की आयु में दुलारसिंह दाउ को वैवाहिक सूत्र में बांध दिया, किन्तु पिताजी का यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।
नाचा में पारंगत
छत्तीसगढ़ में सन 1927-28 तक कोई भी संगठित नाचा पार्टी नहीं थी। आवश्यकता पड़ने पर कलाकार कार्यक्रमों के लिए एकजुट हो जाते थे और कार्यक्रम के बाद फिर अलग हो जाते थे। आवागमन के सीमित साधन थे। ऐसे समय में दाऊ मंदराजी ने 1927-28 में नाचा पार्टी बनाकर कलाकारों को एकत्र किया। उन दिनों गांव-गांव में खड़े साज नाचा में मशाल लेकर की जाने वाली मसलहा नाचा प्रस्तुतियों का संक्रमण काल था। यह प्रचलित स्वरुप विकसित होकर गम्मत-नाचा का प्रभावी रुप में लोकमंचीय रूप में आने लगा।
प्रस्तुति
आपने इस विधा को विकृति से बचाते हुए परिष्कृत करने का बीड़ा उठाकर रवेली गांव के मंचीय प्रदर्शन से प्रयास आरंभ किया। सक्षम कलाकारों से सुसज्जित उनकी टोली धीरे-धीरे लोकप्रियता पाने लगी। नाचा के माध्यम से छुआछूत को दूर करने के प्रयास में ईरानी गम्मत, हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास प्रमुख रहा। बुढ़वा एवं बाल विवाह, मोर नाव दमांद गांव के नाम ससुरार, गम्मत में वृद्ध एवं बाल विवाह में रोक की प्रेरणा थी। मरारिन गम्मत में देवर भाभी के पवित्र रिश्ते को मॉं और बेटे के रूप में जनता के सामने रखा जाता था। इस तरह दाऊजी के गम्मतों के सभी प्रसंगों में जिन्दगी की कहानी का प्रतिबिम्ब स्पष्ट नजर आता था। महिला नर्तक परी हमेशा ब्रम्हानंद, महाकवि बिन्दु, तुलसीदास, कबीरदास एवं तत्कालीन कवियों के अच्छे गीत और भजन प्रस्तुत करते रहे हैं। सन 1930 में चिकारा के स्थान पर हारमोनियम और मशाल के स्थान पर गैसबत्ती से शुरूआत आपने अपने नाचा दल से की। आपकी छत्तीसगढ़ी नाचा की लोक यात्रा रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, जगदलपुर, अंबिकापुर, रायगढ़ से टाटानगर तक कई छोटी-बड़ी जगहों में आपका परचम फैलनेे लगी। आपने नाचा के मंचीय विकास की यात्रा में भरपूर योगदान दिया।
कलाकार
नाचा के माध्यम से अभिनय के क्षेत्र में न्यायिक दास मानिकपुरी, झुमुकदास मानिकपुरी मदन निषाद, लालू राम, भुलवाराम, फिदाबाई मरकाम, जयंती, नारद, सुकालू और फागूदास जैसे दिग्गजों को सामने लाने का श्रेय आपको है। प्रदेश के पहले संगठित रवेली नाचा पार्टी के कलाकरों में थे परी नर्तक के रूप में गुंडरदेही खलारी निवासी नारद निर्मलकर, गम्मतिहा के रूप में लोहारा भरीर्टोला वाले सुकालू ठाकुर, खेरथा अछोली निवासी नोहरदास, कन्हारपुरी राजनांदगांव के राम गुलाम निर्मलकर, तबलची के रूप में एवं चिकरहा के रूप में स्वयं दाऊ मंदराजी रहते थे।
समर्पित जीवन
नाचा के माध्यम से छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को जीवन्त रखने और उसके समुचित संरक्षण के लिए आपने तन-मन-धन समर्पित कर दिया। जीवन का आखिरी पहर गुमनामी और गरीबी में गुजारा लेकिन आपने व्यक्तिगत लाभ को दरकिनार कर केवल नाचा की समृद्धि को जीवन की सार्थकता माना। 1984 को उनका निधन हो गया।
दाऊ मंदराजी सम्मान
प्रदर्शनकारी लोक विधा नाचा को जीवंत रखने जन सामान्य में उसकी पुर्नप्रतिष्ठा और लोक कलाकारों को प्रश्रय देने वाला यह व्यक्तित्व नई पीढ़ी के लिए प्रेरक है। छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में लोक कला शिल्प के लिए दाऊ मंदराजी सम्मान स्थापित किया है। लोककला में उनके योगदान को देखते हुए छत्तीसगढ़ शासन द्वारा प्रतिवर्ष राज्य में दाऊ मंदराजी सम्मान दिया जाता है जो लोककला के क्षेत्र में राज्य का सर्वोच्च सम्मान है।
डॉ. दीनदयाल साहू
साहित्यकार व संपादक
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