बोलियां भाषा का पूर्वरूप है जिसमें भाषा जितना परिष्कार और चमक दमक भले ही न हों किन्तु सहजता और स्वाभाविकता होती है। कोई बी बोली या भाषा अचानक नहीं बनती है। पहले उसका प्रयोग समाज में होता है तब कहीं वर्षो बाद साहित्य की भाषा बनती है। अंचल विशेष में अपने लोगों के बीच विचारों के आदान प्रदान के माध्यम को बोली कहते हैं। बोली में सहजता होती है जबकि भाषा के विविध आयामों को व्यक्त करने की उसमें असीम क्षमता होती है जबकि भाषा स्वरूप परिष्कृत होता है। बोली का क्षेत्र सीमित होता है उसमें निरंतर बदलाव आता रहता है। इसीलिए कहा जाता है कि चार कोस में पानी बदले आठ कोस में बानी।
बोलियों में रचित साहित्य के अध्ययन अध्यापन से स्थानिक संस्कृति इतिहास भूगोल रीति-रिवाज, रहन-सहन, लोक प्रथाओं और जीवन शैली का परिचय मिलता है। बोली अपने परिवेश को रचती और व्यक्त करती है और परिवेश उसे रचता है।
बोध गम्यता का आधार भाषायी संरचनात्मक तत्व होते हैं जो एक दूसरे को निकट लाने का प्रयास करते हैं । बोली और भाषा में प्रकृति तत्व की दृष्टि से अंतर कर पाना कठिन है, क्योंकि एक बोली समय के अंतराल में भाषा बन जाती है और कभी भाषा कालांतर में बोली ही रह जाती है। उदाहरण के लिए हिन्दी की वर्तमान बोलियां अवधी ब्रज खड़ी बोली और छत्तीसगढ़ी को लिया जा सकता है। अवधी और ब्रज बोली स्तर से ऊपर उठकर भाषा बनी ओर पुन: भाषा के अंतर से पदच्युत होकर बोली बन कर रह गई है।
जनपदीय बोलियों और उनकी शब्द संपदा कितनी समर्थ है इसका आकलन दो रूपों में होता है-
1. शब्द भंडार के माध्यम से
2. साहित्य रचना के माध्यम से
अवधी का विकास
प्रत्येक भाषा का अपना चरित्र होता है। हर भाषा अपने स्वभाव का इतिहास भूगोल अपनी संस्कृति में रचती है। मध्य काल में अवधी का विराट वैभव काशी से कान्य कुब्ज तक दिखाई पड़ता है, जबकि इसका केन्द्र अवध था। दामोदर पंडित के उक्ति व्यक्ति प्रकरण से लेकर जगनिक के आल्हाखंड तक इसे देखा जा सकता है। अवधी में सूफी काव्य की समृद्ध परंपरा मिलती है, जिसकी तुलना विश्व के किसी भी पुराने साहित्यिक और सांस्कृतिक आंदोलन से की जा सकती है। ऐसा विराट आंदोलन और व्यापक पहले अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देती। सूफी परंपरा के सारे लेखक मुसलमान थे। इन मुसलमान कवियों ने अवधी की जो साझा संस्कृति रची
वह केवल अवधी ही नहीं, बल्कि विश्व के साहित्य में भी एक महत्वपूर्ण मिसाल है। यह सूफी काव्यधारा एक संक्रमण की संस्कृति है, जहां भाषा एंटी वायरस की तरह काम करती है। मानवीय मूल्यों के कलात्मक संरक्षण भाषा के साहित्यिक होने का सबसे बड़ा प्रमाण है।
अवधी के विकास को देखने के लिए मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है-
1. प्राचीन अवधी
2. आधुनिक अवधी।
इन दोनों में भेद करने पर परसर्ग, सर्वनाम, क्रिया रूप, क्रिया विशेषण, अव्यय विभक्ति और संज्ञा में कुछ न कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ता है। भाषा विज्ञान की भाषा में इसे ही विकास कहा जाता है। प्राचीन अवधी में अनुनासिक महाप्राण ध्वनि म्ह – न्ह और लोडित ध्वनि रह का प्रयोग नहीं होता था, किन्तु आधुनिक अवधी में यह प्रयुक्त हो रही है। प्राचीन अवधी में ख के लिए ष का प्रयोग मिलता है लेकिन आधुनिक अवधी में इन दोनों ध्वनियों का प्रयोग होता है जैसे-परघट या परगट(परकट)। प्राचीन अवधी में ड और ढ का प्रयोग मिलता है। लेकिन आधुनिक अवधी में ड़ और ढ़ का प्रयोग मिलता है। आधुनिक युग में अवधी की कुछ विभक्तियां विलुप्त हो गई हैं जैसे हियां हि विभक्ति। पहले इसका प्रयोग सभी कारकों में होता था, कुछ समय बाद केवल कर्म औक संप्रदान कारक में प्रयोग होता था और अब आधुनिक अवधी में यह केवल पुरूष वाचक सर्वनामों में प्रयुक्त हो रहा है और अन्य रूपों में परसर्ग रूपों के साथ प्रयोग हो गया है-जैसे जेहिका-वहिका। इसका एक परिवर्तित रूप संबंध कारक में प्रयोग किया जाता है वहां हकार का लोप हो जाता है जैसे घरहिं से घरै (हि से ऐ)। प्राचीन अवधी में न्हि और न्ह जैसी प्राचीन विभक्तियों का प्रयोग भी बदला है। न्ह का महाप्राणत्व समाप्त होकर न हो गया है जैसे विप्रन्ह से विप्रन। इसी प्रकार परिवर्तन सर्वनाम, परसर्ग रूपों और क्रिया रूपों में भी हुआ है। सन 1940 ई. तक का समय अवधी का प्रारंभिक काल है। सन 1400ई. के बाद की रचनाओं में भाषा में एकरूपता नहीं है। पूर्व, मध्यकाल और उत्तर मध्य काल की अवधी रचनाओं की अगर तुलना की जाए तो बहुत से शब्द जो पूर्व मध्यकाल में अधिक प्रयुक्त होते थे वे उत्तर मध्यकाल में बहुत कम और आधुनिक काल आते आते समाप्त हो गए हैं। या बहुत से शब्द जो पूर्व मध्यकाल में कम प्रयुक्त होते थे, वे उत्तर मध्यकाल में अधिक और आधुनिक काल तक आते आते बहुत अधिक प्रयुक्त होने लगे हैं। जैसे तने-तिन्ह तेन-तेना शब्द। तेन तिन्ह का प्रयोग पूर्व मध्य काल में कम उत्तर मध्यकाल में अधिक और आधुनिक काल में बहुत अधिक प्रयोग होने लगा है। इसी प्रकार अछ आधु का रूप पूर्व मध्यकाल में आछत आछहिं रूप में प्रयुक्त होता था उत्तर मध्यकाल में आछै या आछत रूप में प्रयुक्त होेेने लगा और आधुनिक काल में समाप्त हो गया। भव शब्द का विकास भा के रूप में हो गया है। प्राचीन अवधी में संज्ञा के मूल पद को दीर्घ करने की प्रवृत्ति बहुत कम मिलती है। किन्तु आधुनिक अवधी में पर्याप्त प्रचलन में है जैसे सांपु सांप। वर्तमान में विदेशी शब्दों को भी दीर्घ करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। प्राचीन अवधी में विशेषण के दो रूप मिलते हैं जैसे बड़ा, बड़का बड़कवा। प्राचीन अवधी में हऊं का प्रयोग होता था यह वर्तमान में समाप्त हो गया है।
अवधी विकास के पथ पर अग्रसर है इसमें आज भी परिवर्तन हो रहे हैं। यदि अवधी के पूरे विकास क्रम पर ध्यान दे तों मध्यकाल में अरबी-फारसी के शब्द् और आधुनिक काल में अंग्रेजी के शब्द आए हैं। बोलचाल की अवधी पर भी खड़ी बोली का प्रभाव पड़ा है। वर्तमान में अवधी भाषा में अंग्रेजी के टीन रिलीज, सोशल साइट, इंटरनेट, फेसबुक, ब्लाग, टैक्सी, राशन कार्ड, वोटर कार्ड, बैंक, पार्टी, कोट, ओवरकोट और टीबी जैसे बहुत सारे शब्द आ गए हैं।
लेकिन अवधी में अभी बहुत सारे शब्द ऐसे हैं जो अन्य किसी बोली या भाषा में नहीं हैं जैसे ओलियाइ जाब मडि़या ठडमेंडरा (वाद्य यंत्र), कुबरी (सहारा देने वाली लकड़ी), मलगोब्बा काढ़ना (मुंह फुलाना), भिटहुर (गोहरी का ढेर), कोहांइ जाब (गुस्साना), छोड (गरारी), गऊखा (दीवाल की छोटी आलमारी), गोइड़े (घास के पास), झोंझ (घोंसला), तरखले (नीचे), दिक्क(बीमार), छेंड़ी (बकरी), पलका(पलंग), बसही (पत्नी) गंवहियां(मेहमान)।
अगर हम अवधी साहित्य को देखें तो प्राचीन संत कबीर की भाषा में पंजाबी राजस्थानी और पूरबी भाषा के शब्द अधिक हैं। रहीम की भाषा में राजस्थानी-बैसवारी के साथ फारसी के शब्दों का मिश्रण है। तुलसी की भाषा में संस्कृत के शब्द अधिक हैं। हरि प्रसाद निरंजनी की भाषा में ब्रज राजस्थानी अवधी के साथ खड़ी बोली का भी प्रयोग है। मलूक दास की भाषा में संस्कृत और फारसी के शब्दों का मिश्रण है। प्राचीन संत काव्य से आधुनिक संत काव्य की भाषा अधिक विकसित है। सूफी कवि नूर मोहम्मद की रचना इन्द्रावती (1744 ई.) में भी विदेशी भाषा के शब्द मिलते हैं। अवधी में राम काव्य के लेखन परंपरा प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक मिलता है। जितने राम काव्य और बरवै काव्य अवधी में लिखे गए हैं उतने किसी भाषा या बोली में नहीं हंै, यह अवधी की अपनी विशेषता है।
जागरण युग में भारतेन्दु ने जन जागरण के लिए अवधी को अपनाया, जबकि नव जागरण काल में उपदेशपरक समाजिक सुधार नव जागरण जैसे विषयों को लेकर लिखा गया। छायावादी युग की रचनाओं में अंग्रेजी शासन का विरोध और आधुनिक विषय जैसे प्रकृति सौंदर्य रहस्य श्रृंगार दर्शन और कल्पना इत्यादि परर लिखा गया जो पहले की परंपराओं से हटकर है। बलभदर दीक्षित और पढ़ीस कि रचनाओं में प्रगतिशीलता के दर्शन होते हैं। अवधी में करीब तीन सौ कवि हैं आज की अवधी प्रवास और संस्कृतिकरण के कारण खड़ी बोली और अंग्रेजी से प्रभावित है। जहां खड़ी बोली में महाकाव्य-खंडकाव्य का अभाव है वही अवधी में कृष्णायन गांधी चरित्र मानस हनुमत, विनय पारिजात, बभ्रुवाहन, धु्रव चरित जैसे प्रबंध काव्य आधुनिक काल में लिए गए हैं।