लोक संस्कृति
छलकती है पारंपरिक लोकगीतों में
जीवन जीने का देती है संदेश
छत्तीसगढ़ का लोकजीवन कृषि संस्कृति का संपोषक है। खेती-किसानी ही उसका जीवन है, उसका धन है। खेती-किसानी केवल अपने ही बल-बूते पर नही होती इसमें समाज का भी सहयोग शामिल होता है। लोकगीत इन्हीं सद्भावों के साथ लोक कंठ से उपजते है और सामाजिकता के स्वर को मुखरित करते हैं। संस्कृति की प्रवाहमानतों लोक गीतों से है। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में पौनी-पसारी की परम्परा है। इसमें समाज की सभी जाति यथा लोहार, कोटवार, राऊत, नाई, बरेठ (धोबी) आदि गाँव समाज के कार्यो में अपने जातीय पेशा के अनूरूप सहयोग करते हैं। बदले में उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर तय जेवर जो अन्न के रूप में होता है और राशि भी सामाजिकता की यह भावना लोकगीत के माध्यम सोहर के बधाई रूप में प्रगरित है-
लाल घर बजत हे बधाई
लाल घर सुनि के आएंव
बम्हनीन छोकरी
पोथी बोहि आवय
हमला खबर नहि दिए
लाल घर बजत बधाई
दरअसल यह गाँव की संस्कृति है, गाँव की सभ्यता है, ताकि आत्मीयता बढ़े और मानवता सबल हो। लोक अपनत्व को महत्व देता है। सुईन (दाई) जो यहाँ दलित जाति की होती है उसका भी छत्तीसगढ़ी लोक समाज में बड़ी अहयिमत है। सुईन प्रसव कार्य सम्पन्न करती है। नवजात बच्चे का नाल काटती है। ऐसे सामाजिक सन्दर्भ लोकगीत के गौरव हैं-
राम जनम लिए, भगवान जनम लिए
चइत राम नवमी में राम जन्म लिए
सुईन आवय नेरूवा दिने
लोकगीत मनुष्यता को सदृढ़ करते है। छत्तीसगढ़ी विवाह गीत में सामाजिक सन्दर्भ का अनूठा चित्रण- दूल्हा / दुल्हन को हल्दी चढ़ाई जा रही है और ग्रामीण महिलाओं के कंठों से गीतों की रस वर्षा हो रही है-
कहँवन हरदी, कहँवन हरदी
भाई तोरे जनामन, भई तोरे जनामन
कहँवन हरदी तुम लियेन अवतार।
मरार बारी, मरार बारी
दाई मोरे जनामन, दाई मोरे जनामन
बनिया दुकाने में लिएंव अवतार।
लोक गीत प्रश्नोत्तर के रूप में गाए जाते है। या फिर लोकगीत में प्रश्नोत्तर समाया रहता है। छत्तीसगढ़ी बिहाव गीत की एक शैली है भड़वनी जिसमें महिलाएं बारातियों को प्रेम पगी गालियाँ गीतों के माध्यम से सुनाकर हास-परिहास करती हैं। उनका इशारा कभी समधी के लिए होता है तो कभी समधन के लिए। भड़वनी में बहुत से गीत हैं जिनका अपना सामाजिक सन्दर्भ है। एक ऐसा ही गीत जिसमें समधन को लक्षित किया गया है-
अइसन समधिन के लुगरा खंगे हे लुगरा खंगे हे
गे होही कोष्टा दुकान रे भाई, गे होही कोष्टा दुकाने
जय होही गे होही
अइसन समधिन के पोलखा खंगे हे पोलखा खंगे हे
गे होही दरजी दुकाने रे भाई, गे होही दरजी दुकाने… जय हो गे होही
लोक गीतों की उत्पत्ति का श्रेय समुदाय समाज को जाता है। कोई गीत समुदाय के माध्यम से ही स्वीकृत होकर लोकगीत की श्रेणी में आता है। मौलिक सृजित गीत लोक का कंठ हार बनकर लोकगीत का पद पा जाता है। यह सब सामाजिकता का प्रभाव है। छत्तीसगढ़ में भोजली पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। ग्रामीण बालिकाएं श्रावण युक्त सप्तमी को गेहूँ के दानों को विधि-विधान से उगाकर उसकी पूजा प्रार्थना करती है। भोजली प्रकृति से जुड़ा त्यौहार है। जो गीत गाया जाता भोजली गीत कहलाता है। हमारी सामाजिकता इस गीत में भी संदर्शित है-
देवी गंगा देवी गंगा, लहर तुरंगा
हमर भोजली दाई के भीजे आठों अंगा
ओ ओ देवी गंगा
कहँवा के टुकनी, कहँवा के खातू?
फंड़रा घर के टुकनी, कुम्हार आवो के खातू
ओ ओ देवी गंगा।
बलिकाओं से यह पूछने पर कि भोजली उगाने के लिए तुम लोगो ने बांस की टोकनी व खाद कहाँ से लाया तो उनका उत्तर है कि बाँस की टोकरी कँडरा घर से और खातू कुम्हार के आवा स्थल से लाया गाँवों में लोगों का पारस्परिक स्नेह और लगाव सामाजिकता की आधार भूमि है। गौरा पर्व छत्तीसगढ़ का अनुष्ठानिक पर्व है। दीपावली के समय मनाया जाने वाला यह पर्व शिव-पार्वती के विवाह का लोक आयोजन है, जिसमें समाज के सभी लोगों की सहभागिता होती है, आवेश आने पर इसे देव चढ़ना कहा जाता है। गाड़ा बाजा के माध्यम से गाँव की महिलाएं गौरा गीत गाती है। गौरा गीतों में सामाजिक सन्दर्भ दर्शनीय है-
बारे कुदुरसाखी घन अमरइया, वो घन अमरइया
जहाँ ग कुम्हार भईया केरे ल बसेरे
कुम्हरा के केहेन कुम्हार मोर भईया
करसा-कलोरी गढ़ देबे ग भईया।
कुदुरसाखी की घनी अमराई के क्या कहने? जहाँ पर कुम्हार निवास करता है। वह कुम्हार मेरा भईया है। मैने कुम्हार से कहा-भैया गौरा के लगिन (विवाह लग्न) के लि करसा -कलौरी (मंगल कलश) गढ़ देना। कुम्हार कलश गढ़ना भूल जाना है। इसलिए उसे शीघ्र कलश गढ़ने के लिए कहा है। एक और गौरा गीत जिसमें बाजा बजाने वाले (गाँड़ा), बैगा, गौटिया व सभी लोगों का जाग जाने का आहवान किया गया।
गउरा जागो, मोर गउरी जागे, जागे ओ सहर के लोग
बाजा जागे, मोर बजनिया जागे, जागे गवइया लोग
बइगा जागे, मोर बइगीन जागे, जागे, ओ सहर के लोग
गऊँटिया जागे, मोर गऊँटनिन जागे, जागे ओ सहर के लोग
गौरा पर्व की तरह छत्तीसगढ़ का एक और अनुष्ठानिक पर्व है जँवारा पर्व। जँवारा मातृशक्ति की आराधना का पर्व है चैत्र मास में रामनवमी पाख व कुंवार मास के दशहरा पाख में नवरात्रि का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व में नौ दिनों तक अखंड ज्योति जलाकर गेंहूँ के दाने बोकर (जँवारा उगाकर) शक्ति व प्रकृति की उपासना की जाती है। जन-जन के हृदय से मातृ वंदना के स्वर जस-जँवारा गीत के रूप में को संतृप्त करता है। ग्राम के माता देवालय व मंदिरों में व्यक्तिगत व सामूहिक रूप से ज्योति कलश प्रज्वलित किए जाते हैं-
सिंह साज के निकले भवानी सेवक ढूंढन जाय
सेवक मिले मैया भलिया के बेटिया
नीत उठ फूल चढ़ाय।
फूल चढ़ाय मुख मुरली बजाय
मुरली में तोर धुन गाय
सिंह साज के निकले भवानी सेवक ढूंढन जाय
सेवक मिले अहिर के बेटी नीत उठ दूध चढ़ाय
छत्तीसगढ़ लोक में लोक गीतों का विविध रंगी स्वरूप हमें विभिन्न अवसरों पर देखने को मिलता है, जिसमें सुवा गीत का प्रमुख स्थान है। सुवा गीत नारी मन की सहज अभिव्यक्ति है। दीपावली के समय ग्रामीण महिलाएं मिट्टी का सुवा (तोता) बनाकर उसे टोकनी में रखती है। फिर उसमें वृत्ताकार गोल धूम-धूम कर ताली बजाकर तोते की तरह फुदक-फुदक कर मनोरम नृत्य करती हैं। सुवा नृत्य से जो उन्हें अन्न व राशि मिलती है, उसे गौरा विवाह में खर्च करती हैं। सुवा गीत के विषय विविध होते हैं। महिलाएं सुवा के माध्यम से अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति को अपने प्रिय तक प्रेषित करती है। सुवा गीत भी सामाजिक सन्दर्भ से पृथक नहीं है। एक सुवा गीत दृष्टव्य है-
तरि हरि ना ना मोर न नरि ना ना सुबे नंदन
सुबे नंदन बन म मोर छोलि चांच दे
बढ़ई के केहों बढ़ई मोर भईया सूबे नंदन
सूबे नंदन बन म मोर माँदर छोलि चांच दे।
छत्तीसगढ़ का लोक मानस श्रम का पुजारी है। अपने श्रम से सीचंकर फसलों को लहलहाता है। तब वह झूम कर गीत गाता है। श्रम और गीत एवं दूसरे के पूरक है। जहाँ श्रम है वहाँ गीतों की बरखा है और जहाँ गीतों की बरखा है वहाँ श्रम का झरना है। लोकगीत है। दो पंक्तियों का यह गीत जीवन प्रभावी होता है। सीधे अन्तर मन में प्रवेश का जीवन को रससिक्त कर देता है।
बटकी म बासी अउ चुटकी म नून।
मैं गावत हँव ददरिया, तै कान दे के सुन।।
ददरिया समूह में प्रश्नोत्तर रूप में गाया जाता है। खेतो की निदाई या तेदूंपत्तों तोड़ाई के अतिरिक्त हल चलाते, दौरी हाँकते गाया जाता है। गायक /गायिका आशु कवि की तरह इसमें पंक्तियां जोड़ लेते हैं। ददरिया में सामाजिकता का बड़ा सुंदर उदाहरण-
कांदी रे लुए, लुए ल फुलकी
आगी ल अमरबे, कोठा के भुलकी।
नाई जाति की लड़की पत्तल बनाती है। लोधी जाति की लड़की के गवन में कथरी (गुदड़ी) भेजी जाती है, जो जातीय परम्परा है। प्रेम रस में सराबोर कुछ और ददरिया की बानगी जिसका अपना सामाजिक सन्दर्भ है-
नरवा के तीर में चरे ल बोकरा।
बंसरी बजा के बलावे, राउत छोकरा
बकरी चराने वाला राऊत (यादव) बाँसुरी बजाने में प्रवीण होता है। देवार जाति की बालाएं गीत नृत्य के कुशल होती है। उनकी कला की जादूगरी और मोहनी मंत्र से लोग सम्मोहित हो जाते है। तो गोड़ जाति की बाला प्रेम के नाम पर दगा कर जाती है। छत्तीसगढ़ में करमा गीत की बड़ी प्रसिद्धि है। करमा गीत नृत्य के साथ गाया जाता है। करमा की अनेक शैलियाँ है- जैसे मंडलाही करमा, गोड़ी करमा, बिलासपुरी करमा, सरगुजिहा करमा, देवार करमा आदि मंडलाही करमा का एक उदाहरण जिसमें दोस्ती थे नहीं तोड़ने की बात कही गई हे-
ओ हो डारा लोर गे हे रे
बैठिन हे चिरैया डारा लोर गे हे रे
बेटी का संबोधन गोदने के दर्द को हर लेता है-
लोक गीतों में समय के साथ कुछ परिवर्तन हाते है। कुछ छुटता है, कुछ जुड़ता है, वेरयर एल्विन का कथन है कि -लोकगीत अथवा लोककथा केवल अजायबघर की वस्तु नहीं। उसमें नई पीढ़ियों के साथ-साथ नए परिवेश और नए संघर्ष जुड़ते रहते हैं। राऊत नृत्य में नर्तक नाचने से पूर्व दोहों का उच्चारण करते है। ये राऊत दोहे लोक परम्परा में रचे-बसे हैं। कबीर और तुलसी की दोहों की तरह है। इनमें जातीय गौरव और सामाजिकता का सन्देश साथ-साथ विद्यमान है। राऊत दोहा की बानगी-
भले गाँव गंडई संगी, बहुते उपजय सिलयारी
गोड़ हा मानय गौरा-गौरी, अहिरा मानय देवारी
नाचा छत्तीसगढ़ का सुप्रसिद्ध लोकनाट्य है। इसमें गाए जाने वाले गीत नाचा गीत कहलाते है। जिनमें नचौड़ी और नजरिया गीत शामिल है। नाचा के गम्मत सामाजिक तानो-बानो से बुना गया समाज का वास्तविक चित्रण है। नाचा समरसता का पाठ पढ़ाता है-
जात खातिर कतेक तोर गुमान रे संगी
जात खातिर कतेक तोर गुमान।
छत्तीसगढ़ में मितान बदने की लोक परम्परा इसी भावना से पोषित है। महाप्रसाद, गजामूंग, जंवारा, गंगाजल, गंगाबारू, सोनपतली, दौनापान आदि एक दूसरे को खिलाकर या भेंट कर आबाल-वृद्ध नर-नारी मितान बन जाते है। मितान परम्परा हमारे सामाजिक को सुदृढ़ करते है। छत्तीसगढ़ी लोकगीत इस मामले में बड़ा धनास्य है। मितान परम्परा से संबंधित कुछ गीत-
मोर नंगरिया खात नई हे
रांधेव भूंज बघार के ओ गजामूंग
लाल भाजी गोंदली के डीड़।
लोक गीत भी कला है, लोक की कला इसलिए वह मनुष्यता का परिपालन करता है। सामाजिक लोक का आंतरिक भाव है जो लोक व्यवहार में दिखाई पड़ता है। लोक व्यवहार में समता और सदभाव का स्थान जितना ऊँचा होगा व मनुष्यता के उतने ही करीब होगा। छत्तीसगढ़ में कृषि संस्कृति के साथ ऋषि संस्कृति का प्रभाव है। कबीरदास जी व संत घासीदास जी का प्रभाव यहॉं लोकजीवन में दिखाई पड़ता है। संत गुरूघासी दास जी का संदेश मनखे-मनखे एक समान अर्थात सभी मनुष्य एक समान है। कोई ऊँच है न नीच कोई छोटा न कोई बड़ा। पंथी गीत में यह दृष्टव्य है-
काबर करथस गुमान, सब ला आपने जान
बाबा के कहना मनखे-मनखे एक समान।
लोक गीत मानव मन की अनुभूतियों को स्वर देने के साथ-साथ समाज की परम्पराओं को उद्घटित करते हैं। लोक गीतों का विस्तार जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। लोक गीत व्यक्ति के जीवन मरण से जुड़ा हुआ है। लोकगीत कृत्रिमता और अलंकार से दूर होते है।
मनुष्यता का स्वर्णिम बिहान है।
जिसको पीकर लोक अजर-अमर।
उस उभरता का पुण्य वरदान है।
शोध आलेख
डॉ. पीसी लाल यादव