आज के संदर्भ में ‘गुरुपूर्णिमा’ का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि दुनिया भौतिकता के पीछे पागलों की तरह दौड़ रही है। ‘आध्यात्मिकता’ से पलायन ही ‘भौतिकता’ की शुरूआत होती है और यह भी सर्वविदित है कि भौतिकता आपको सुख तो दे सकती है, स्थाई आनंद नहीं। स्थाई आनंद के लिए आपको ‘आध्यात्मिकता’ का सहारा लेना ही पड़ेगा। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ‘आध्यात्मिकता’ के विषय में हमें कौन बताएगा? किस दिशा में जाने से यह जीवन में फलीभूत होगी? इसका बहुत सरल सा उत्तर है – गुरु । गुरु के माध्यम से ही हमारे जीवन में अध्यात्म घट सकता है। गुरु ही इस दिशा में हमारा पर्याप्त मार्गदर्शन कर सकते हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में गुरु का महत्व सर्वोपरि होता है।
अध्यात्म के प्रति यदि शिष्य के मन में प्रबल जिज्ञासा होगी तो ही ‘गुरु’ इस क्षेत्र में शिष्य को लेकर आगे बढ़ेगा अन्यथा गुरु शिष्य की ज्ञान पिपासा दूसरे ढ़ंग से शांत करेगा। स्वामी विवेकानंद में ‘अध्यात्म’ को लेकर अनगिन जिज्ञासाएँ थीं। यही कारण है कि श्री रामकृष्ण परमहंस उन्हें विशिष्ट आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करते हैं। यही शिक्षा विवेकानंद को शीर्ष पर पहुंचाती है। उन्हें विश्व वंद्य बनाती है। ईश्वरीय चेतना के संवाहक और प्रतिनिधि के रूप में गुरु का स्थान सुनिश्चित है। शिष्य यदि लौकिक शिक्षा प्राप्ति के ही योग्य होगा तो गुरु उसे उसी दिशा में ले जाएंगे और यदि शिष्य ‘विवेकानंद’ की तरह होगा तो गुरु की शिक्षण पद्धति अतिविशिष्ट हो जाएगी। गुरु शिष्य को असीमित श्रद्धा से भर देता है और उसे इस विश्वास से बचाता है कि ‘सत्य’ दूसरों से मिलता है। गुरु शिष्य को यह समझाता है कि तुम्हें ही सत्य की खोज करनी पड़ेगी। सत्य का अन्वेषण तुम्हारा ही कार्य क्षेत्र है। जिस सत्य की खोज विवेकानंद ने की, उस सत्य को श्रीरामकृष्ण परमहंस चाहते तो पहले ही उद्घाटित कर देते परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। विवेकानंद ने अपने अथक प्रयासों से ‘सत्य’ का साक्षात्कार किया। तो गुरु शिष्य को अध्यात्म की शिक्षा देता है। कोई और इस दिशा में शिष्य का मार्गदर्शन नहीं कर सकता।
शिष्य में शिष्यत्व को केवल गुरु ही जान सकता है। शिष्य स्वयं को तो पात्र समझता है; यह उसकी दृष्टि हो सकती है परंतु शिष्य की पात्रता कितनी है यह गुरु ही तय करते हैं। ‘शिष्यत्व’ के सहारे ही गुरु अपने शिष्य को ‘शिवत्व’ की ओर ले जाते हैं। ‘शिवत्व’ से आशय है शिष्य की अंतर्निहित शक्तियों का सम्यक जागरण। इस जागरण से ही शिष्य गुरु के कार्यों को आगे बढ़ाता हुआ स्वयं ‘अध्यात्म’ के क्षेत्र में विशिष्ट उपलब्धियां हासिल करता चला जाता है। अत: प्रश्न यह उभरता है कि ऐसे गुरु कहाँ मिलेंगे? इसका उत्तर है – पात्रता। यदि शिष्य सुपात्र होगा तो गुरु उसे ढूंढते हुए पहुँच जाएँगे। शिष्य को गुरु तक जाने की आवश्यकता नहीं है। बिना पात्रता के हम गुरु के लिए पूरी आयु भटकते रहेंगे किंतु हमें गुरु कभी नहीं मिलेंगे।
गुरु की महिमा असीमित है। अपरंपार है। शिष्य के प्रति वे महान उपकार करते हैं। चर्म चक्षुओं के स्थान पर ज्ञानचक्षु खोलने का कार्य करते हुए शिष्य को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं। संत कबीर कहते हैं – “लोचन अनंत उघाडिया,अनंत दिखावन हार।” आज की युवा पीढ़ी के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है –
मातु पिता गुरु प्रभु के बानी
बिनहि बिचार करइ सुभजानी
गोसाईं जी ने सूक्ष्म संकेत किया है माता-पिता। अब जिन्हें यह लगता है कि उनके जीवन में योग्य गुरु का अभाव है तो ऐसे लोग बिना संशय ‘माता-पिता’ को अपना गुरु मान स्वयं का कल्याण कर सकते हैं क्योंकि जितनी क्षमता एक योग्य गुरु में होती है उससे कहीं अधिक क्षमता माता और पिता में भी होती है। प्रश्न श्रद्धा का है क्योंकि ज्ञान वहीं ठहरता है जहाँ एकनिष्ठ श्रद्धा होती है।
लेखक
डॉ. लोकेश शर्मा
गायत्री नगर
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)