समृद्ध है हमारी छत्तीसगढ़ी संस्कृति
हमारी सांस्कृतिक चेतना को विकसित और परिमार्जित
करता है संस्कृति। संस्कृति के बिना संस्कार की परिकल्पना नहीं कि जा सकती है। इस
सांस्कृतिक विरासत में हमारी सभ्यता, रहन-सहन, आचार-विचार,
वेशभूषा
खानपान और व्यवहार समाहित होते हैं। बिना संस्कृति के व्यक्ति और समाज निर्माण की
परिकल्पना भी नहीं की जा सकती है। लोक संस्कृति में हमें नाचा, पंडवानी,
भरथरी,
नाचा,
भोजली
गीत, जंवारा गीत, सुआ गीत-नृत्य, देवार गीत-नृत्य
और कर्मा गीत-नृत्य के माध्यम से व्यक्त होती रहती है। यह लोक गीत और नृत्य हमारे
राज्य की सांस्कृतिक धरोहर हैं। इसी तरह यहां के खानपान में भाजी पाला से लेकर कंदमूल की विशेषता जो
दिखती है वह अन्य राज्यों में नहीं होती। जड़ीबूटियों की भी भरमार हमारे राज्य में है। आदिवासी अंचल
की संस्कृति तो दुनिया में जगजाहिर है। नृत्य गीत और संगीत की सरस और सुरूचि पूर्ण
अभिव्यक्ति
में लोक गाथाओं की अहम भूमिका होती है। लोक पर्व मनाने का प्रारंभ
छत्तीसगढ़ में वर्षा ऋतु से हो जाता है। वर्षा ऋतु के चतुर्दिक हरियाली के मौसम में
किसान सोल्लास हरियाली के अवसर पर अपने औजार इत्यादि का पूजन करते हैं। इसी कड़ी
में रक्षाबंधन के दूसरे दिन भाद्र महीना के कृष्ण पक्ष प्रथमा को भोजली
पर्व छत्तीसगढ़ का विशिष्ट पर्व मनाया जाता है। स्नेह को संस्कारित करने वाली भोजली
के विसर्जन पश्चात लोग एक दूसरे के कान में भोजली खोंच कर अपना स्नेह प्रदर्शित करते
हैं। भोजली
प्रेम और स्नेह के साथ एकता का संदेश लेकर आती है। राउत नाच गौ संरक्षण का आंचलिक
पर्व है। राउत नाच में नर्तक, पंद्रह बीस या न्यूनाधिक व्यक्तियों की
टोली में रहते हैं। रंगीन मनमोहक पोशाक में युवा, बुजुर्ग और
बच्चे सभी
सोल्लास भाग
लेते हैं। आखों में काला चश्मा के साथ आकर्षक पोशाक से युक्त सिर पर रंगीन पागा
बांधे ऊपर सुंदर मोर पंख की कलगी अथवा बांस की छोटी खुमरी टोपनुमा कागज के फूल और
रंगों से सजी होती हैं। घुटनों के ऊपर तक धोती, रंग-बिरंगे
कुरता के ऊपर जरी युक्त जाकिट, पैरों में जूते पर घुंघरु में इनका मन
मोहक रुप देखते ही बनता है। बाजा और महिला नर्तकी के वेश में सुर ताल मिलाकर नृत्य
मन को आनंदित कर देता है। लोक गीतों में करमा-ददरिया लोक उत्सव का श्रृंगार है।
इतना होने के बाद भी ग्लोबलाइजेशन के कारण लोगों में सांस्कृतिक
पतन चिंतन का विषय बनता जा रहा है। हम अपनी संस्कृति को किस रूप में और कैसे
पुन:स्थापित हो, इस पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता महसूस की जा
रही है। किसी भी स्थिति में हमारी संस्कृति को बचाए रखना भी
हमारा मूल कर्तव्य है। इसी संस्कृति को बचाए रखने का हमारा भी उद्देश्य इस समाचार पत्र के माध्यम से
पूरा करने का संकल्प लिया है। इस महाअभियान आप सभी का आशीर्वाद और
सहभागिता
भी
आवश्यक है जिससे हम अपने उद्देश्यों में सफल हो सकें।
जय जोहार...
संपादक
गोविन्द साहू (साव)
लोक कला दर्पण
contact - 9981098720
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