संपादकीय
देखा जाए तो संपूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य को आदिवासी
अंचल के रूप में जाना जाता है। बस्तर अंचल में आदिवासियों की बाहुलता है और अन्य
मैदानी क्षेत्रों में अन्य बहुजातीय समाज की बहुलता और निवास है। इस अंचल में
विविध व्रत, त्योहार एवं पर्व उत्सव आदि मनाए जाने की
प्रचलित परंपराएं हैं। इस दृष्टि से इस क्षेत्र को उत्सवी क्षेत्र कहा जा सकता है।
बारहों महिने कोई न कोई पर्व उत्सव का आयोजन होते ही रहते हैं। यहां के कुछ पर्व
उत्सव नारी प्रधान हैं और कुछ पुरुष प्रधान तथा कुछ ऐसे भी पर्वोत्सव हैं, जो मिल जुल कर
संयुक्त रूप से मनाए जाते हैं। इस अंचल में मनाए जाने वाले प्रत्येक पर्व उत्सव
में देवी-देवताओं की प्रधानता होती है। देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के पश्चात ही
पर्वोत्सव प्रारंभ होते हैं या देवी, देवताओं की पूजा
अर्चना के साथ ही साथ संपन्न होते हैं। अनेक पर्व उत्सवों के अवसर पर पारंपरिक लोक
गीत भी
गाये जाते हैं। इन लोक गीतों में प्राय: किसी न किसी प्रासंगिक देवी, देवता
की पूजा, अर्चनाएं, कथाएं, गुंणगान आदि होते हैं। अंचल के इन
उत्सवी प्रसंगों के आयोजनों में शामिल हैं यहां होने वाले मड़ई मेला। यहां के मड़ई
मेला भी धूमधाम
के साथ मनाये जाते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के प्राय: हर गांवों में बैगा आदिवासी ही
ग्राम्य संस्कृति निभाने में अपना योगदान देते हैं, इन
जातीय समूह के नर-नारियों, बाल-वृद्धों में विस्तृत धार्मिक
परंपरा देखी जा सकती है।
हमारे अंचल में तैंतीस कोटि देवी-देवता पूजे
जाने की जानकारी मिलती है। आदिवासियों के इन प्रमुख मान्य देवों में महाकाल,
महाजाल,
बिकराल,
ठाकुर
देव, दुलहा देव, टिकरा देव, दुबटिया देव,
बटिया
देव, राठिया देव, भेड़वन देव, सोंड़िहन देव,
मड़िहन
देव हैं। इसी तरह देवियों में झरना दाई, तलाव माता, मुग्दरधारी,
खांड़धारी,
पहरादार,
फूलधारी,
दोनाधारी,
पंखधारी,
बाजार
रखवाली, हड्डाधारी, बहरीधारी, पतरीधारी,
हरदीधारी,
सेंदूरधारी,
फीतावाली,
फुंदरावाली,
झब्बावाली,
ठेकावाली,
आरतीवाली,
दियावाली,
लाईवाली,
महुआवाली,
परसा
फूलवाली, धोवई फूलवाली, सेंमर फूलवाली, मंदार फूलवाली,
कमल
फूलवाली, बहेरावाली आदि प्रमुख है। नाम के अनुरूप ये सब अपने नियत स्थल के
प्रतिनिधित्व करते हैं। इन देवी-देवताओं के गुरु को देगन गुरु के नाम से जानते
हैं। झाड़ फूंक के क्षेत्र में देगन गुरु के नाम की बड़ी महिमा है। उनके दुहाई मात्र
से लोग निरोग हो जाते हैं। लोगों पर चढ़े
हुए भूत,
प्रेत
उतर कर भाग
जाते हैं।
इस तरह आज भी आदिवासियों को धर्म के प्रति सजग देखे
जा सकते हैं। इतना ही आदिवासी जड़ीबूटी के अच्छे जानकार भी होते हैं। जटिल बिमारियों को इलाज वे
जड़ीबूटियों के माध्यम से कर लेते हैं। इनके जड़ीबूटियों की मांग देश में ही नहीं
विदेशों में भी है। इसके साथ अच्छे शिल्पकार भी यह
होते हैं। इन्हें अपनी माटी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते भी देखा जा सकता है। कुल मिलाकर
आदिवासियों की अपनी संस्कृति और सभ्यता है। इनकी संस्कृति और सभ्यता पर हम सभी को
गर्व करना चाहिए।
संपादक
गोविन्द साहू(साव)
लोक कला दर्पण
contact - 9981098720
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