●कविता●
◆ अब का होही ◆
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का लइका का सियान कका।
सबो हावय हलाकान कका।
दूनों जुवर अब खाबो कैसे;
महंगई छूवत आसमान कका।
करजा के मार ले दुबरा गेहे;
मजदूर अउ किसान कका।
खीसा उन्ना मोर पीरा जुन्ना;
नोट बनगे हे भगवान कका।
आघू का होही इही सोच म;
बितत हे संझा बिहान कका।
मन चुरत हे अउ तन घुरत हे;
छूट जाही का अब परान कका।
सपना होगे सब सरे बरोबर;
अउ जिनगी मरे समान कका।
छत म चढ़े बेईमानी हाँसत हे;
कुंदरा म रोवत हे ईमान कका।।
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रचना:-
केशव पाल(पत्रकारिता छात्र)
मढ़ी(बंजारी)तिल्दा-नेवरा,
रायपुर(छ.ग.)9165973868
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