संस्कृति ब्रह्म की भांति अवर्णनीय है।
यह व्यापक अनेक तत्त्वों का बोध कराने वाली, जीवन की विविध
प्रवृत्तियों से संबन्धित है। अत: विविध अर्थों व भावों में उसका प्रयोग होता है। मानव मन
की बाह्य प्रवृत्ति-मूलक प्रेरणाओं से हुआ विकास सभ्यता और उसकी अन्तमुर्खी
प्रवृत्तियों का परिणाम ही संस्कृति होती है। लोक का अभिप्राय सर्वसाधारण जन मानस से है,
जिसकी
पहचान व्यक्तिगत न होकर सामूहिक होती है। लोक संस्कृति का एक रूप हमें भावाभिव्यक्ति
शैली में भी
मिलता है, जिसके द्वारा लोक-मानस की मांगलिक भावना से ओतप्रोत होना सिद्ध होता
है। लोक जीवन की सरलतम, नैसर्गिक
अनुभूतिमयी
अभिव्यंजना
का चित्रण जैसा लोक गीतों व लोक कथाओं में मिलत है, वैसा अन्यत्र
सर्वथा दुर्लभ है। लोक साहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता है। प्रकृति स्वयं गाती
गुनगुनाती है। लोक जीवन में पग पग पर लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। लोक साहित्य
उतना ही पुराना है जितना कि मानव, इसलिए उसमें जन जीवन की प्रत्येक
अवस्था, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी
कुछ समाहित हैं।
लोकसंस्कृति पर विभिन्न विद्वानों यथा डॉ हजारी प्रसाद
द्विवेदी, डॉ सत्येन्द्र आदि ने भी लिखा है जिनके अनुसारी लोक संस्कृति,
वह
संस्कृति है जो अनुभव, श्रुति और परम्पराओं से चलती है। इसके
ज्ञान का आधार पोथी नहीं होती। सांसारिक जीवन में समस्त लोक समुदाय का मिला-जुला
रूप लोक कहलाता है। इन सबकी मिली जुली संस्कृति, लोक संस्कृति
कहलाती है। देखने में इन सबका अलग-अलग रहन-सहन है, वेशभूषा,
खान-पान,
पहरावा-ओढ़ावा,
चाल-व्यवहार,
नृत्य,
गीत,
कला-कौशल,
भाषा
आदि सब अलग-अलग दिखाई देते हैं, परन्तु यह एक ऐसा सूत्र है जिसमें ये
सब एक माला में पिरोई हुई मणियों की भाँती दिखाई देते हैं, यही
लोक संस्कृति है। लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है,
उलटे
शिष्ट समाज लोक संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है। इनके मर्म और वास्तविक
स्वरूप को अध्ययन-मननशील विद्वान ही समझते हैं। भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा भारतीय
साधारण जनता है जो नगरों से दूर गाँवों, वन-प्रांतों में निवास करती है।
लोक संस्कृति में श्रद्धा भावना
की परम्परा शाश्वत है, वह अन्त: सलिला सरस्वती की भाँती
जनजीवन में सतत प्रवाहित हुआ करती है। लोक संस्कृति एवं लोकोत्तर संस्कृति तथा
विश्व की सभी
संस्कृतियों का बीज एक ही है। यह बीज लोक संस्कृति ही है। लोक संस्कृति बहुत
व्यापक है, वहाँ वह सब कुछ है जो लोक में है, लोक
संस्कृति लोक से छन-छन कर आती है, लोक से हटकर जब हम उसकी व्याख्या करने
लगते हैं तो उसकी तमाम बातें अश्लील लग सकती हैं, जैसे गालियाँ,
परन्तु
ये गालियाँ लोक में प्रचलित हैं और दैनिक जीवन में इनका भरपूर प्रयोग भी देखा जा सकता है पर जब इनकी आप
व्याख्या करने बैठ जायें तो शर्म आने लगती है। कोई गाँव, कोई क्षेत्र ऐसा
नहीं है जहाँ गालियाँ नहीं प्रयुक्त होती। लोक जीवन में इनका भी महत्व
है, मन की ग्रंथि खुल कर साफ हो जाती है।
लोक को समझना इतना आसान भी नहीं है, लोक परम्परा और
लोक संस्कृति में भी बड़ा अन्तर है, परम्पराओं में
से अच्छी अच्छी बातें निकल निकल कर कालांतर में लोक संस्कृति बनती रहती है,
लोक
संस्कृति अन्तस में रची बसी होती है। लोक में जो कुछ है वह सब का सब लोक संस्कृति नहीं
है। विद्वानों के अनुसार मनुष्य की अमूल्य
निधि उसकी संस्कृति है। संस्कृति में रहकर व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी बनता है और
अपने अनुकूल बनाने की क्षमता अर्जित करता है। सामान्य अर्थ में, संस्कृति
सीखे हुए व्यवहारों की सम्पूर्णता है। लेकिन संस्कृति की अवधारणा इतनी विस्तृत है
कि उसे एक वाक्य में परिभाषित करना सम्भव नहीं है। मानव समाज के धार्मिक,
दार्शनिक,
कलात्मक,
नीतिगत
विषयक, कार्य-कलापों, परम्परागत प्रथाओं, खान-पान,
संस्कार
इत्यादि के समन्वय को संस्कृति कहा जाता है। इसी समस्त विधाओं को एक सूत्र में
पिरोने का काम हमने लिया है। आप सभी इसमें अपना सहयोग देकर हमा अर्थ में,
संस्कृति
सीखे हुए व्यवहारों की सम्पूर्णता है। लेकिन संस्कृति की अवधारणा इतनी विस्तृत है
कि उसे एक वाक्य में परिभाषित करना सम्भव नहीं है। मानव समाज के धार्मिक,
दार्शनिक,
कलात्मक,
नीतिगत
विषयक, कार्य-कलापों, परम्परागत प्रथाओं, खान-पान,
संस्कार
इत्यादि के समन्वय को संस्कृति कहा जाता है। इसी समस्त विधाओं को एक सूत्र में
पिरोने का काम हमने लिया है। आप सभी इसमें अपना सहयोग देकर हमारे आत्मबल
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संपादक
गोविन्द साहू (साव)
लोक कला दर्पण
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