छत्तीसगढ़ में लेखन और प्रकाशन विशुद्ध
छत्तीसगढ़ी दिलों दिमाग वाले लोग ही कर पाते हैं। छत्तीसगढ़ की हिमायत और छत्तीसगढ़ी
में लेखन दुनियावी तौर पर केवल घाटे का सौदा है। रायपुर दूरदर्शन के लिए छत्तीसगढ़ी
में जो टेलीफिल्में बनती हैं वह मुश्किल से अपना घाटा पूरा कर पाती है। जबकि
गुणवत्ता की दृष्टि से कमजोर दिल्ली मुम्बई के
हिन्दी प्रस्तुतियों के निर्माता मालामाल हो जाते हैं। फिर भी भावना
से बंधे जन घर फूंक तमाशा दिखाने का साहस दिखाते हैं। जाहिर है ऐसे लोग जो भी
किसी माध्यम से अपनी बात कहेंगे उनका दर्द उसमें उभर कर सामने आ जायेगा। स्वर्गीय कपिलनाथ
कश्यप अँचल के मूर्धन्य साहित्यकार हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ी में अविस्मर्णीय और
अमूल्य लेखन किया। महाकाव्य के रचयिता कपिलनाथ कश्यप ने विभिन्न विधाओं में सृजन किया। नवा बिहान
अपेक्षाकृत छोटी मगर उनकी संभवत: सर्वाधिक जनस्वीकृत कृति है। इस
एकाँकी संकलन में पृष्ठ-पृष्ठ पर उनका दर्द सामने आता है। छत्तीसगढ़ी की सरलता,
सहजता,
परबुधियापन
से सभी
परिचित हैं। और परिचित हैं छत्तीसगढ़ की कर्मठता से। मगर कर्म और कौशल के बावजूद
प्रतिवर्ष पेट ठठाते हुए हजारों छत्तीसगढ़ी अन्य प्रांत की ओर पलयान करने पर विवश
हो जाते हैं। यह एक कटुसत्य है कि जिन प्रांतों के लोगों को छत्तीसगढ़ अपने सर माथे
पर बिठाता है उन्हीं प्रांतों में जब छत्तीसगढ़ी मजदूर पेट से बंधकर जा पहुँचता है
तो वहाँ उसे बंधुवा बनाकर उस पर हर तरह से अत्याचार किया जाता है। यही अंतर हमें
पुरी दुनिया से अलग करता है। हम तो गली में खड़े रहने वाले परदेसियों को परछी में
बिठाते हैं और परछी में बैठते ही वे रंधनी कुरिया तक सीधे प्रवेश करने के लिए
सुरंग बना लेते हैं। धीरे-धीरे होता यह है कि छत्तीसगढ़िया ही बेघर हो जाता है और
सगा ही घर वाला बन जाता है। इस तकलीफ से सभी वाकिफ हैं मगर इस दर्द को समय-समय पर
सही ढंग से प्रस्तुत करने का जोखिम जिन लोगों ने उठाया उनमें कपिलनाथ कश्यप का
प्रयास स्तुत्प है। खूबचंद बघेल से लेकर कपिलनाथ कश्यप भी इस परंपरा से जो भी
जुड़ता है उसे उपेक्षा और विरोध सहना पड़ता है। लाभ कमाने के लिए छत्तीसगढ़ी बन जाने वाले
कुशल व्यवसायी के हमेशा दो चेहरे होते हैं। वे अपना रोजगार फैलाने के लिए तो सबसे
बड़े छत्तीसगढ़ी बन जाते हैं मगर जब भी अवसर आता है छत्तीसगढ़ की जड़ों में मठा
डालना नहीं भूलते। इस दर्द को नवा बिहान के रचयिता ने खूब
पकड़ा है। उसका बहुत व्यावहारिक जवाब भी उन्होंने दिया है-
प्रश्न-का सबे आदमी जउन छत्तीसगढ़ म रथे वो मन
छत्तीसगढ़ी नोहय ?
उत्तर-अइसे तो जउन कमाय खाये बर आके इहां बस
गये हें सबे मन अपन मतलब के बेरा अपन ल छत्तीसगढ़िया कथें,मतलब निकले ले
गुर्राथें -
आगे
गारी पीछे लात
तब
छत्तीसगढ़ आवे हाथ।
अइसन जउन छत्तीसगढ़ के करथे अपमान ओमन ल हम
छत्तीसगढ़ी नई मानन। छत्तीसगढ़ी तो हम ओला मानबो जउन-अपन ल छत्तीसगढ़ी कहे म अपन ल
हीनता नई मानय। छत्तीसगढ़ के भलाई म अपन भलाई
अऊ ओकर बुराई म अपन बुराई मानथे। छत्तीसगढ़ के अपमान जेला अपन अपमान अस लागय। जेकर
मातृभाषा
छत्तीसगढ़ी आय। जउन भाषा, वेषभूषा, बिहाव शादी,
रहन
सहन म छत्तीसगढ़ी लागय। जेकर नेरूआ छत्तीसगढ़ म गड़े हे।
![]() |
कपिलनाथ कश्यप |
इस तरह एक बड़े सवाल का साफ जवाब सम्भवत:
कश्यप जी ने नाटक के माध्यम से दिया। इस नाटक में पृथक छत्तीसगढ़ का महत्व बताया
गया है। उसके लिए रणनीति भी सुझाई है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के
छोटे राज्यों की अवधारणा से लेकर पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के अस्तित्व के औचित्य पर
मुहर लगाने में वे सफल रहे हैं-
पानी
पथरा आगी मा अब
बढ़ते
जाही छत्तीसगढ़
जन
बल पाके अब हरियाही
धान
कटोरा छत्तीसगढ़
इस आशा का संचार अपने नाटक के माध्यम से श्री
कश्यप जी
करते हैं।
इस संग्रह में गोहार शीर्षक एक एकांकी और है-
काल
धरे रे सबके चूंदी
पता
न कब ले जाही
छिन
भंगुर
ये सोनहा काया
माटी
मा मिल जाही
कायाखंडी गीत छत्तीसगढ़ की विशेषता है। इन
पंक्तियों में
पारंपरिक कायाखंडी गीतों का असर झलकता है-
तूझे
बुलाता कृषक अधीर
हे
विप्लव की वीर
जैसी
कोई बात होगी
उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर छत्तीसगढ़ी के
प्रसिद्ध कवि भगवती सेन की पंक्तियाँ याद हो आती है -
लबरा
मन इहाँ भूकर – भूकर के खाथे
सिधवा
गरूआ मन भूखन
मर जाथे
भइगे
भइया
अब गोल्लर मन के चलती हे
जाने
कहाँ गल्ती हे जाने कहाँ गल्ती हे।
छत्तीसगढ़ी आन्दोलन को धोखा देकर निजी लाभ के
लिए आन्दोलन विमुख होने वाले नेताओं पर उन्हें पढ़ते हुए पुन: इस दौर के प्रसिद्ध
शायर अदम गोंडवी याद हो आते हैं-
काजू
भुने
प्लेट में हिस्की गिलास में
उतरा
है रामराज विधायक निवास में
आजादी
का ये जश्न मनायें वे किस तरह
जो
आ गये फुटपाथ पर घर की तलाश में
एकांकी में वे स्वावलंबन की बात करते हैं।
सरकारी सहयोग के
बिनास्वयं गाँव के एक उदार एवं संकल्पवान व्यक्ति
की प्रेरणा से पलायन को रोकने की बात है। मगर अंत तक आते-आते कश्यप जी छत्तीसगढ़ के
ठंडेपन पर चोट करने पर विवश हो जाते हैं-
गोहार।
गोहार। गोहार।।
गोहार
पारे ले का होही ?
बिन
माँगे दाई हर अपन
लइका
ल दूध नई पियावय।
डॉ. परदेशीराम वर्मा
एल आई जी -18
आमदी नगर हुडको भिलाई
1 टिप्पणियां
बहुत ज्ञानवर्धक लेख है।
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