लोक गीतों का उद्भव संभवतः उतना ही प्राचीन है जितना की मानव जीवन।
आदि युग से जब मानव कन्द्राओं , गुफाओं और जंगलों में रहता था, तो वह प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए समूह में रहता था। जब उसमें बुद्धि का विकास हुआ होगा तो सम्भवतः उसने अपनी भावनाओं को लयात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया होगा। जिसे दूसरों ने गा - गा कर लोक गीत का रूप दे दिया होगा वही आदि गीत लोकगीत कहलाया। आदि मानव प्राकृतिक जीवन यापन करता था। वह प्रकृति के संसर्ग में रहते हुए पूर्णतयाः प्रकृति पर निर्भर था, वह प्रकृति की गोद में पलने वाला जीव था। इसलिए उसका रहन - सहन आचार विचार सरल था, आडम्बर एवं कृत्रिमता से दूर, नितान्त सहजता के कारण ही उसके गीतों में स्वछन्दता एवं स्वाभाविकता का पुट अधिक था। आज भी लोक गीतों में वही सार लय दृष्टिगोचर होता है।
लोक गीतों के उदभव एवं विकास के बारे में विद्वानों में मतभेद रहा है। लोक गीतों का सृजन कैसे हुआ इसके रचियता कौन है कई ऐसे विवादास्पद प्रश्न है जिनका स्पष्टीकरण अत्यन्त आवश्यक है। जर्मनी के प्रख्यात लोक साहित्य मर्मज्ञ विल्यप्रिय ने अपना सामूहिक उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था, कि लोकगीत सामूहिक रीति से निर्मित होते है। परन्तु रूसी लोक साहित्य मर्मज्ञ सोकोलोव प्रिय के सामूहिक उत्पत्ति के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए लिखते है कि- कोई भी कृति ऐसी नहीं है जिसका कोई रचियता ना हो या जो सबकी रचना हो ।
वस्तुतः लोक गीत का सृजन बीज रूप में सर्वप्रथम एक व्यक्ति द्वारा होता है और फिर मौखिक परम्परा में रहने के कारण अन्य व्यक्तियों द्वारा समय - समय पर संबोधित होता रहता है। यही कारण है कि एक ही गीत के कई पढान्तर प्रायः उपलब्ध होते है। डॉ दृ भीमसिंह मालिक के अनुसार लोक गीतों के मूलों तक पहुंचना दुःसाध्य कार्य है और जिस प्रकार स्थान - स्थान पर मिट्टी से सम्पर्क स्थापित कर , अपनी श्रृंखला के नए - नए फूलों का जाल बिछाती चलती है वैसे ही लोक गीत भी ना - ना कण्ठों और स्वरों में रमकर विकसित एवं परिष्कृत होता रहता है।
मानवीय ज्ञान के अनन्त भण्डार , इतिहास के अनेक पृष्ठों की उलट फेर , के पश्चात भी लोक गीतों के सृजन की तिथि को खोजना संम्भव नहीं है क्योंकि लोक गीतों को किसी काल विशेष की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। मानव हृदय जब कभी भी सहानुभूति से प्रेरित सुरा संवेदनाओं से आन्दोलित हुआ होगा, गीतों के अज्ञात स्वर मनुष्य के आधारों पर गुंज उठे होंगे। आनंन्द की भावना से मानव जीवन सर्वदा ही पोषित होता रहा है। अतः आनन्द भावना को मानव जीवन के विकास की प्रमुख प्रवृति ही माना जाएगा। इसकी मूल प्रेरणा है मानव हृदय की रसात्मक अनुभूति। इस अनुभूति का उदवेलन हृदय की संकुचित सीमा में न समाकर जब वाणी मुखरित होने की स्थिति में पहुंच जाता है तभी लोक गीतों का स्त्रोत उमड़ पड़ता है।
लोकगीत मौलिक परम्परा में जीवित रहते है। लोक कवि सामान्य एवं साधारण जनसमूह का प्रतिनिधि होता है। गीत का सृजन करते समय वह लेखनी से अधिक अपने कण्ठ तथा जिहवा का उपयुक्त प्रयोग करता है फलस्वरूप मौखिक प्रक्रिया से ही गीत लोकप्रिय हो जाता है। ज्यों ही गीत एक या दो पीढ़ीयों तक चला आता है। इसके मूल रचियता का नाम मिटता चला आता है तथा भुला दिया जाता है। वस्तुतः कलान्तर में गीतकार अज्ञात हो जाता है।
जहां किसी लोक गीत में गायक या लेखक का नाम मिलता भी है वही ही प्रमाणिक रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तुतः गीत का मूल रचियता वही है। वस्तुतः किसी भी गायक को लोकगीत का मूल रचियता मान कर , गीत का रचनाकाल इत्यादि निर्धारित करना सर्वथा भ्रामक होगा।
वस्तुतः यह एक विवादास्पद प्रश्न है कि किसी गीत का रचना काल क्या है ? इसका सृजन कब और कैसे हुआ ? वास्तव में ये ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। जिनका उत्तर देना सहज नहीं। जब तक रचनात्मक लिखित साहित्य की भाँती लोकगीतों अथवा लोक साहित्य का इतिहास नहीं लिया जाता , तब तक ऐसे प्रश्नों का समाधान असम्भव है।
वस्तुतः भारत की समग्र बोलियों तथा उपबोलियों में प्रचलित गीतों के अध्ययन परान्त कोई ऐसा लक्ष्य प्राप्त नहीं होता जिसके आधार पर दृढतापूर्वक कहा जाए की यहां के लोक गीतों का सृजन सामूहिक विधि से हुआ है। आधुनिक अनुसंधान ने यह बात स्पष्ट करती है की लोकगीतों की सृजन प्रक्रिया में समुदाय नहीं अपितु समुदाय का व्यक्ति ही अधिक सक्रिय रहा है।
यह प्रक्रिया आज भी जीवित है। आज भी गीत बनते है जिन्हें समुदाय का व्यक्ति बनाता है। विशेष कर स्त्रियां इस क्षेत्र में अग्रणीय है। अस्तु लोकगीतों की उत्पत्ति नहीं सामूहिक रीति और नहीं किसी विशिष्ट जाति द्वारा होती है। लोक गीत लोकमानस की साधारण अभिव्यक्ति है। जिसका रचयिता एक व्यक्ति हुआ करता है अतः जिसे लोक कवि की संज्ञा दी जा सकती है। मौखिक परम्परा में रहने से ये गीत विकृत होते है। जिनका दायित्व लोक गायक पर ही ठहरता है।
संपादक
गोविन्द साहू (साव)
लोक कला दर्पण
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